શુક્રવાર, 24 મે, 2013

कहा बढ़ पाओगे तुम ?

स्त्री पर समाज द्वारा लादे गए बंधनों के बारेमे कविता...

कब सोच बदलोगे तुम ?
कब आवाज उठाओगे तुम ?
मुजको दबाके रोककर कितना
कहा बढ़ पाओगे तुम ?

मुजको देवी कहलानेवाले,
सितम सारे करनेवाले,
बाँध के मेरे पैरों को,
कहा बढ़ पाओगे तुम ?

क्यों बनाई दीवारे तुमने ?
क्यों डाले है बंधन तुमने ?
मेरे पाँव सोने की जंजीर डालके
कहा बढ़ पाओगे तुम ?

मैं शक्ति हु मैं सिध्धि भी,
मेरे कदमोसे रिध्धि भी,
'आनंद' बहती हवा बांधके
कहा बढ़ पाओगे तुम ?